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The Accidental Prime Minister review: Anupam Kher’s The Accidental Prime Minister is an out-an-out propaganda film, created for the specific purpose of making the former prime minister look like a weak, spineless man, a puppet whose strings were controlled by The Family.
Going in, you are aware that The Accidental Prime Minister has been crafted from the point-of-view of the author of the book (of the same name) that the film is based on.
The Accidental Prime Minister is an out-an-out propaganda film, created for the specific purpose of making the former prime minister look like a weak, spineless man, a puppet whose strings were controlled by The Family (the word is blipped out, but there is no hiding the movement of the lips). Soniya Gandhi, Rahul, Priyanka and the cunning caucus around them are shown as the real power behind the throne. The film is careful to underline that Singh was honorable, upright and personally incorruptible, but that he overlooked the corruption of his party colleagues, and was paralysed because of the far-reaching influence of The Family.
Singh may well have been an ‘accidental’ PM, in Baru’s succinct words, and history may or may not judge him differently. But it is no accident that the film is out now. The release is completely intentional: the polls are around the corner.
Kher closely mimics Singh’s soft, halting voice, but he also affects a strange shuffle, as though he is being controlled by invisible strings. Kher’s Singh moves awkwardly into the PMO and, it is assumed, just as awkwardly out of it. The idea of a lameduck prime minister gets a literal manifestation in Kher’s body language, cancelling out whatever sympathy is accorded to him in the script. There are fleeting references to Singh’s hardscrabble childhood and his “genius” as an economist, but neither the screenplay nor Kher’s performance is sophisticated enough to give a measure of Singh’s personality.
HINDI
पूर्व पीएम केबेहद करीबी रहे संजय बारू की किताब ‘द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर ‘ पर आधारित निर्देशक विजय रत्नाकर गुट्टे की फिल्म में एक तरफ पूर्व पीएम मनमोहन सिंह को ‘सिंह इस किंग’ कहा गया है, तो दूसरी तरफ कमजोर और महाभारत का भीष्म पितामह बना दिया है, जिन्होंने राजनीतिक परिवार की भलाई की खातिर देश के सवालों का जवाब देने के बजाय चुप्पी साधे रखी। फिल्म में कुछ ऐसी बातें भी हैं, जो पूर्व पीएम की इमेज को क्लीन करने के साथ-साथ धूमिल भी करती है। ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर को किताब बद्ध करने वाले पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार और करीबी रहे संजय बारू का कहना है कि उस किताब के प्रकाशित होने के बाद पीएम उनसे कभी नहीं मिले। क्या यही बात पीएम को नागवार गुजरी? बहरहाल यह सच तो पूर्व पीएम और संजय बारू के बीच का है, मगर संजय बारू की किताब के बहाने 2004 से 2014 के बीच पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पीएमओ से जुड़ी जिस दुनिया को दिखाया गया है, उसपर फिल्म बनाने की मंशा को लेकर लोग कई सवाल खड़े कर रहे हैं। खास तौर पर तब जब कि चुनाव बेहद करीब हैं। इसके इतर इसे सिनेमाई अंदाज में देखा जाए तो अनुपम खेर, अक्षय खन्ना के साथ सहयोगी कास्ट की परफॉर्मेंस इतनी जबरदस्त है कि आप उस दौर को जीने लगते हैं।
फिल्म की कहानी संजय बारू के नजरिए से है, जो 2004 में लोकसभा में यूपीए के विजयी होने के साथ शुरू होती है, जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी (सुजैन बर्नेट) स्वयं पीएम बनने का लोभ त्यागकर डॉक्टर मनमोहन सिंह को पीएम पद के लिए चुनती हैं। उसके बाद कहानी में राहुल गांधी (अर्जुन माथुर), प्रियंका गांधी (आहना कुमरा) जैसे कई किरदार आते हैं। संजय बारू (अक्षय खन्ना ) जो पीएम का मीडिया सलाहकार है, लगातार पीएम की इमेज को मजबूत बनाता जाता है। उसने एक बात पहले ही स्पष्ट कर दी है कि वह हाईकमान सोनिया गांधी को नहीं बल्कि पीएम को ही रिपोर्ट करेगा। पीएमओ में उसकी चलती भी खूब है, मगर उसके विरोधियों की कमी नहीं है। बारू पीएम को ट्रांसफॉर्म करता है, उनके भाषण लिखता है फिर पीएम का मीडिया के सामने आत्मविश्वास से लबरेज होकर आना, बुश के साथ न्यूक्लियर डील की बातचीत, इस सौदे पर लेफ्ट का सरकार से सपॉर्ट खींचना, पीएम को कटघरे में खड़े किए जाना, पीएम के फैसलों पर हाईकमान का लगातार प्रभाव, पीएम और हाईकमान का टकराव, विरोधियों का सामना जैसे कई दृश्यों के बाद कहानी उस मोड़ तक पहुंचती है, जहां न्यूक्लियर मुद्दे पर पीएम इस्तीफा देने पर आमादा हो जाते हैं पर हाईकमान उनको इस्तीफा देने से रोक लेती है। आगे की कहानी में उनकी जीत के अन्य पांच साल दर्शाए गए हैं, जो एक तरह से यूपीए सरकार के पतन को दर्शाती है, जहां 2 जी जैसे घोटाले दिखाए गए हैं।
फिल्म में इस बात को खास तौर पर रेखांकित किया गया है कि कैसे वे अपनी ही पार्टी के लोगों की राजनीति का शिकार बने। निर्देशक विजय रत्नाकार गुट्टे की फिल्म उस खास दर्शक वर्ग के लिए है, जो राजनीति में गहरी रुचि रखता है। मासेज के लिए इसे समझना दुष्कर है। फिल्म में दर्शाए गए रेफरेंस को ध्यान से देखने की कड़ी जरूरत है। दर्शकों को वे पीएमओ की ऐसी दुनिया में ले जाते हैं, जिसका उसे अंदाजा तो है, मगर वह उससे परिचित नहीं है। फिल्म की कहानी बहुत ही सपाट है। रोमांचक टर्न्स ऐंड ट्विस्ट की कमी खलती है। मुख्य कलाकारों को छोड़कर सहयोगी चरित्रों का समुचित विकास नहीं किया गया है। कई जगहों पर फिल्म एक ही सेट अप के कारण बोर करने लगती है, मगर डार्क ह्यूमर आपका मनोरंजन भी करता है।
अभिनय की बात की जाए तो पूर्व पीएम की भूमिका में अनुपम खेर शुरुआत में वॉइस मॉड्यूलूशन और दोनों हाथ आगे झुकाकर चलने के अंदाज से अटपटे लगते हैं, मगर जैसे-जैसे किरदार का विकास होता जाता है और कहानी आगे बढ़ती जाती है, चरित्र में अनुपम खेर कन्विसिंग लगने लगते हैं। उन्होंने किरदार की गंभीरता को बनाए रखा है। किताब के तथ्यों के मुताबिक, उन्होंने पीएम की बेचारगी, बेबसी और डार्क ह्यूमर को बखूबी निभाया है। बारू के किरदार में अक्षय खन्ना फिल्म के हाई लाइट साबित हुए हैं। सूत्रधार के रूप में अपने लुक, विशिष्ट संवाद अदायगी और तंजिया लहजे के बलबूते पर अक्षय ने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया है। जर्मन ऐक्ट्रेस सुजैन बर्नर्ट ने सोनिया गांधी के लुक को अच्छी तरह अपनाया है, मगर किरदार में उनका नेगेटिव स्ट्रीक ज्यादा स्ट्रॉन्ग है। प्रियंका के रूप में आहना का लुक जबरदस्त है, मगर उन्हें ज्यादा स्क्रीन स्पेस नहीं मिला है। उसी तरह राहुल की भूमिका में अर्जुन माथुर को ज्यादा सीन्स नहीं मिले। पीएम की पत्नी की भूमिका में दिव्या सेठ याद रह जाती हैं। अन्य राजनीतिक किरदारों में कलाकारों की कास्टिंग और अभिनय सधा हुआ है।
बैकग्राउंड संगीत औसत है।